Tuesday, April 28, 2009

विनायक सेन के लिए

हममें से बहुत से लोग पीयूसीएल का नाम शायद भूल गए हों. कुछेक को हो सकता है कि याद भी हो. पीयूसीएल यानी पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज. इसी संगठन के सदस्य हैं डा. विनायक सेन. वे क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर से पासआउट डाक्टर हैं. आजकल काम छत्तीसगढ़ में कर रहे हैं. काम उनका वही है, जिसकी उन्होंने डिग्री ली है, यानी डाक्टरी. हां, एक अदद सेक्टर उनके काम में जुड़ जरूर गया है. और वह है मानव अधिकारों का. बस यहीं से पंगा है.
दरअसल छत्तीसगढ़ में उनका काम करना और वो भी नक्सलियों के साथ मिलकर प्रदेश सरकार को रास नहीं आ रहा. सो करीबन दो साल से डा.सेन को सरकार ने जेल में बंद कर रखा है कि कहीं वह बाहर निकलकर फसाद न कर दें. डा.सेन को छत्तीसगढ़ स्टेट पब्लिक सेक्युरिटी एक्ट के तहत उनके अन्य साथियों के साथ बंद करके रखा गया है. उनपर मुकदमा चलाया गया लेकिन पर्याप्त साक्ष्य न थे और न ही मिले, फिर भी छत्तीसगढ़ पुलिस और राज्य सरकार को इस भलेमानस डाक्टर को रिहा करने की सुध नहीं आई. बिलासपुर हाई कोर्ट ने उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी. उन्हें रिहा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अर्जी डाली गई मगर वरुण गांधी को सबक लेने की हिदायत देने वाला कोर्ट डा.सेन के रिहाई की उम्मीद न जगा सका (दिसंबर २००७) . भारत सरकार के पास पहले से ही ढेरों काम है, इसलिए उसे इसकी सुध आती ही क्यों.
दुनियाभर में मशहूर इस पेडियट्रिशियन (बच्चों का डाक्टर) की रिहाई के लिए ढेरों अपील किए गए मगर किसी सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही. और तो और मई २००८ में २२ से ज्यादा नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने भारत सरकार से डा.सेन की रिहाई की गुहार लगाई, देशभर के अखबारों मे अनेकों कालमों में सेन की रिहाई के दलील दिए गए लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात रहे.
निखिल चक्रवर्ती की स्थापित पत्रिका मेनस्ट्रीम में अपने एक आलेख में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर कहते हैं कि सामान्यतया जमानत याचिका तब खारिज की जाती है जबकि आरोपी अपने खिलाफ पेश किए गए सुबूतों के साथ छेड़छाड़ करता हो या गवाही पूर्वाग्रह से युक्त हो अथवा आरोपी फरार हो गया हो. लेकिन डा.सेन के साथ तो ऐसा कुछ किए जाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती, फिर क्यों नहीं उनकी रिहाई संभव हो पा रही है. (जस्टिस अय्यर के ये विचार दरअसन डा.सेन के मामले को लेकर भारत के प्रधानमंत्री को लिखे गए पत्र से उद्धृत हैं जो अंग्रेजी दैनिक द हिंदू में प्रकाशित हुआ है)
इतना सब के बावजूद डा.सेन अभी भी यदि जेल में ही हैं तो शायद हमें कुछ करना चाहिए. ब्लाग पर ही सही.

संदर्भ -
तहलका (हिंदी, अप्रैल)
मेनस्ट्रीम (अंग्रेजी, अप्रैल २५)
कुछ हिंदी अखबार (क्योंकि बहुत सारे हिंदी अखबारों में डा.सेन जैसों के लिए शायद स्पेस नहीं होता.)

Tuesday, April 7, 2009

मंदी ने मीडियाकर्मियों के स्वास्थ्य पर डाला असर

दुनिया में गहराती आर्थिक मंदी ने विकसित और विकासशील देशों के बजट संतुलन तो बिगाड़ ही दिये हैं, अब कर्मचारियों व पेशेवरों के स्वास्थ्य पर भी इसका असर दिखने लगा है।
मंदी गहराने के साथ ही रोजी-रोटी छिनने के डर से कर्मचारियों में मानसिक तनाव, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, मोटापा, ठीक से नींद नहीं आना और स्पोंडलाइटिस जैसी बीमारियां उन्हें घेरने लगी हैं।
सूचना प्रौद्योगिकी यानी आईटी इससे जुडी सेवायें, मीडिया, बाजार अनुसंधान, वित्तीय सेवाओं और संचार सेवाओं के क्षेत्र मंदी से काफी प्रभावित हुये हैं। इससे इन क्षेत्रों में कार्यरत कर्मचारियों और पेशेवरों को स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें सताने लगी हैं।
वाणिज्य एवं उद्योग मंडल एसोचैम द्वारा जारी अध्ययन में यह निष्कर्ष सामने आया है। एसोचैम ने 18 प्रमुख क्षेत्रों के कर्मचारियों की स्वास्थ्य स्थिति का अध्ययन किया है। इसमें कहा गया है कि सूचना प्रौद्योगिकी यानी आईटी और इससे जुड़ी सेवाओं के क्षेत्र में 54 प्रतिशत कर्मचारियों को स्पोंडलाइटिस, मानसिक तनाव और ठीक से नींद नहीं आने का रोग सताने लगा है।